हिंदू धर्म को सही अर्थों में सनातन धर्म कहा जाता है। इसलिए यह जानना बहुत जरुरी है की धर्म क्या है। ‘धर्म’ शब्द का English में एक शब्द में अनुवाद संभव नहीं है, इसलिए इसके कई परिभाषाएँ दी जाती हैं ताकि धर्म के असली अर्थ को समझा जा सके। अगर आप हिन्दू धर्म को समझना चाहते है तो आपको इन बातो का ध्यान रखना होगा.
धर्म को परिभाषित किया गया है:
धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मों धारयति प्रजाः ।
यः स्यात् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः ।।
‘धर्म’ शब्द ‘धारण’ या पोषण से निकला है; धर्म समाज को बनाए रखता है। जो किसी चीज़ को बनाए रखने की क्षमता रखता है, वही धर्म है। (महाभारत, कर्ण पर्व 69:58)
धर्म वो कर्तव्य और जिम्मेदारी हैं, जिन्हें जीवन के विभिन्न चरणों में निभाया जाता है और जो समाज के उच्चतम कल्याण के लिए सहायक होते हैं।
व्यक्तिगत धर्म (स्वधर्म), पारिवारिक धर्म (कुल-धर्म), व्यावसायिक धर्म (जाति-धर्म), राष्ट्रीय धर्म (राष्ट्र-धर्म), और सामान्य वैश्विक धर्म (लोक-धर्म) आदि होते हैं।
धर्म का स्रोत:
वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।
एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम् ।।
वेद, स्मृति (परंपरा), सदाचार (सज्जनों का आचरण) और आत्मा की प्रियता – ये चार धर्म के मुख्य स्रोत माने जाते हैं।
इसलिए जब किसी समस्या या भ्रम में हों तो सबसे पहले वेदों में समाधान खोजने की कोशिस करे । यदि वहां समाधान न मिले तो स्मृति या परंपरा से सलाह लें। यदि वह भी मदद न करे तो आदर्श व्यक्तियों (अपनी प्रेरणा ) के उदाहरणों का अनुसरण करें। और फिर भी समाधान न मिले तो अपने अंतर्मन (अंतरात्मा) की आवाज़ को सुनें।
धर्म हमें पशुओं से अलग करता है:
आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।।
भोजन, नींद, सुरक्षा और प्रजनन ये मनुष्य और पशुओं में समान हैं। लेकिन धर्म ही वह चीज़ है जो मनुष्यों को विशिष्ट बनाता है। धर्म के बिना मनुष्य पशुओं के समान हैं। (हितोपदेश)
धर्म की परिवर्तनशीलता (Mutability):
“कोई भी (कथित) धर्म जो आगे चलकर दुख का कारण बनता है या जिसे समाज द्वारा निंदा की जाती है (लोकविकृष्ट) उसे त्याग देना चाहिए।”
महर्षि याज्ञवल्क्य भी कहते हैं: “जिस धर्म की समाज निंदा करे (लोकविद्विष्ट), उसे नहीं अपनाना चाहिए।”
सनातन धर्म (हिंदू धर्म) की विशिष्ट परिभाषा:
अहिंसा सत्यं अक्रोधो दानमेतच्चतुर्विधम्।
अजातशत्रो सेवस्व एष धर्मः सनातनः।।
हे अजातशत्रु! सनातन धर्म चार नैतिक गुणों से बना है – किसी भी प्राणी को हानि न पहुँचाना, सत्य का पालन करना, क्रोध न करना और दान देना – इनका पालन करना चाहिए।
अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा।
अनुग्रहश्च दानं च तं धर्मं सनातनम्।।
सनातन धर्म का अर्थ है – समस्त जीवों के प्रति मन, वचन और कर्म से अहित न करना, तथा दयालुता और उदारता का अभ्यास करना। (महाभारत, वन पर्व 297:35)
सत्यं दमस्तपः शौचं संतोषश्च क्षमार्जवम्।
ज्ञानं शमो दानं एष धर्मः सनातनः।।
सनातन धर्म सत्य, अनुशासन, तपस्या, शुद्धता, संतोष, क्षमा, सरलता, ज्ञान, शांति और उदारता से बना है। (गरुड़ पुराण 1:213:24)
पद्म पुराण में धर्म के 12 मुख्य घटकों का वर्णन किया गया है:
1. शुद्धता (शौचम्): धर्म की पहली आवश्यकता है – शरीर और मन की शुद्धता। एक हिंदू को प्रतिदिन स्नान करना चाहिए और स्वच्छता बनाए रखनी चाहिए।
2. यज्ञ (बलिदान): ईश्वर की पूजा के लिए वेदों और आगमों में बताए गए अनुष्ठानों का पालन।
3. तप (तपस्या): साधारण जीवन व्यतीत करना और ध्यान का अभ्यास करना।
4. दम (आत्मसंयम): इच्छाओं और व्यवहार पर नियंत्रण रखना, अत्यधिकता से बचना और अनुशासन को अपनाना।
5. स्वाध्याय (अध्ययन): वेदों, उपनिषदों, पुराणों और महाकाव्यों (महाभारत और रामायण) का अध्ययन। साथ ही आत्म-अवलोकन और आत्म-विश्लेषण करना।
6. शांति: शांतिपूर्ण स्वभाव का विकास करना, कम में संतुष्ट रहना और सुख-दुख को समान रूप से स्वीकार करना।
7. अहिंसा (अहिंसा): मन, वचन और कर्म से किसी जीव को कष्ट न पहुँचाना। आवश्यकता पड़ने पर आत्मरक्षा और दूसरों की रक्षा करना भी धर्म है।
8. सत्य (सत्य): सत्य बोलना और कार्यों में सच्चाई का पालन करना।
9. दान (उदारता): ज़रूरतमंदों की मदद करना और अहिंसा का पालन करते हुए सभी प्राणियों को निर्भयता प्रदान करना।
10. अस्तेय (अचोरी): बिना अनुमति किसी चीज़ को न लेना और दूसरों को धोखा न देना।
11. क्षम (क्षमा): सभी प्राणियों के प्रति सहनशीलता और प्रेमपूर्ण व्यवहार करना।
12. गुरुसेवा (वयोवृद्धों का सम्मान): माता-पिता, गुरु और बुजुर्गों का सम्मान और सेवा करना।
आशा है की इस ब्लॉग को पढ़कर आप हिन्दू धर्म के वास्तविक अर्थ को समझ गए होंगे।
|| राधे राधे ||